बड़ी छावनी

कहा जाता है, साधुओं ने धर्म की रक्षा के लिए एक साथ गुट बनाकर रहना शुरू किया और अंग्रेजों के समय उनके रहने की जगह को छावनी कहा जाने लगा
कुछ समय पहले तक अयोध्या में चार प्रमुख छावनियां थीं- तुलसी दास जी की छावनी, बड़ी छावनी, तपसी जी की छावनी और छोटी छावनी। तुलसी दास जी की छावनी खत्म हो गई। खत्म होने की कोई साफ-साफ वजह तो कोई नहीं बताता लेकिन अयोध्या के रहने वाले मानते हैं कि उस छावनी में संतों का जाना-आना बंद हुआ और फिर धीरे-धीरे उसका वजूद ही खत्म हो गया।

बाकी बची तीन छावनियां आज भी आबाद हैं।

बड़ी छावनी

मुख्य अयोध्या शहर से दूर, एक किनारे में लगभग तीन एकड़ जमीन पर आबाद है ये छावनी। चारों तरफ बुलंद चारदीवारी है और आने-जाने के लिए एक दरवाजा है। इसे बड़ी छावनी क्यों कहते हैं? इस सवाल का कोई एक जवाब नहीं है। अलग-अलग जवाब हैं। एक का वजूद आस्था पर टिका है तो दूसरे का आकलन पर।

संतों के मुताबिक, बहुत पहले एक संन्यासी अपने साथ बारह सौ साधु-संतों के साथ घूमते हुए अयोध्या आए। वो चार महीने के लिए अयोध्या में डेरा डालना चाहते थे। चुकी उनके साथ और ग्यारह सौ साधु थे सो कोई तैयार नहीं हो रहा था। तब इस छावनी के पहले महंत श्री रघुनाथ दास जी महाराज ने उन्हें और उनके साथी साधुओं को यहां साल भर के लिए रोका। तभी इसे बड़ी छावनी कहते हैं।

वहीं, पिछले कई साल से धर्म और उसके पीछे के मर्म पर लिखने वाले और इस वास्ते कई बार अयोध्या आ चुके पत्रकार भव्य श्रीवास्तव का मानना है कि संभवतः इसका लेना-देना केवल उस क्षेत्रफल से है, जिसमें छावनी आबाद है।

छावनी के बीच में एक मंदिर है और चारों तरफ छोटे-छोटे कमरे बने हैं। एक तरफ जो कमरे हैं, उनके सामने साधू निवास लिखा है और दूसरी तरफ जो कमरे हैं उनके दरवाजे पर अलग-अलग लोगों के नाम और उनके जन्मस्थान लिखे हैं। ये बिलकुल वैसा ही है जैसे होटल में एक तरफ गर्ल्स होटल लिखा होता है तो दूसरी तरफ बॉयज होटल।

बड़ी छावनी में रहने वाले और खुद को छावनी का भक्त बताने वाले राम सरस इस बारे में बताते हैं, “देखिए। एक तरफ संत रहते हैं। उनकी दिनचर्या अलग होती है। एक तरफ भक्त रहते हैं और वो अपने हिसाब से रहते हैं। ऐसा इसलिए बनाया गया है ताकि भक्तों को संतों से और संतों को भक्तों से कोई दिक्कत ना हो।”